गुरुचरित्र १४वा अध्याय - हिन्दी में
श्री गणेशाय नमः | श्री सरस्वत्यै नमः| श्री गुरुभ्यो नमः |
नामधारी शिष्य आए| सिद्धमुनी को देख मुस्कुराये |
पूछा एकाग्र चित्तसे | गुरुचरित्र अब आगे बढाए || १||
जय हो सिद्ध योगीश्वर | कृपामूर्ति ज्ञान के सागर|
गुरुचरित्र कथा का विस्तार कर| ज्ञान हमारा बढाये||२ ||
पूछा एकाग्र चित्तसे | गुरुचरित्र अब आगे बढाए || १||
जय हो सिद्ध योगीश्वर | कृपामूर्ति ज्ञान के सागर|
गुरुचरित्र कथा का विस्तार कर| ज्ञान हमारा बढाये||२ ||
गुरुकृपा जिस पर हुई | उस ब्राह्मण की उदरव्यथा गई|
जिसके साथ थे सायंदेव | उसके घर भिक्षा हेतू पहुंचे||३ ||
जिसके साथ थे सायंदेव | उसके घर भिक्षा हेतू पहुंचे||३ ||
सायंदेव का था थाट निराला | भक्ती से उसकी खुष होकर|
बोले श्री गुरुमुनिवर | वंश तेरा कायम रहे, सदा मेरे भक्तों से||४ ||
बोले श्री गुरुमुनिवर | वंश तेरा कायम रहे, सदा मेरे भक्तों से||४ ||
सुनकर गुरु की अमृतवाणी | सायंदेव गुरु के पैर धरे|
माथा टिकाकर गुरु चरणों पर| नमन वह करे पुनः पुनः ||५ ||
माथा टिकाकर गुरु चरणों पर| नमन वह करे पुनः पुनः ||५ ||
जय हो जगद्गुरु | त्रिमूर्ति के अवतार हो|| मेरे अविद्या हैं की नर- रूप दिखते हैं|
चारो वेद आपकी महिमा से अनभिज्ञ हैं||६ ||
आप से ही विश्व व्यापक | आप से ही ब्रम्हा विष्णु और महेश |
अवतार लेकर मनुष्य जन्म में | भक्तो के तारणहार आए हो||७ ||
आगे बढो और मिलो यवन को| मन से निडर होकर||
वापस तुमको भेजेगा वोह| ख़ुद संतुष्ट होकर||१४ ||
जब तक तुम लौटोगे | हम यही राह देखेंगे||
तुम्हारी खुषहाली सुनकर| यहासे प्रस्थान करेंगे ||१५ ||
सबसे प्रिय हमारे भक्त| ऐसी ख्याती होगी तुम्हारी||
हर संतान तेरे वंश की| रत होगी भक्ती में हमारी||१६ ||
सदा खुष होगा तेरा घर| लक्ष्मी सदा वहा वास करे||
निरोगी बीतेगा सबका जीवन| सौ वर्षो की आयु मिले||१७ ||
क्रोधित यवन को देख के ब्राह्मण| स्मरण करे गुरु महाराज का|
तब यवन लग रहा था | अवतार भयानक आसुर का||१९ ||
अगर चिढे दीमक | तो क्या अग्नीसे खेलेगी |
और गुरुकृपा हो जिस पर| क्या उसको ऐसी सजा मिलेगी||२० ||
या किसी सिंह पर| ऐरावत कैसे चाल करे|
गुरुकृपा हो जिस शिष्यपर | काल कैसे आघात करे||२२ ||
जिस मन में हो गुरुस्मरण | डर वहा कैसे वास करे|
काल मृत्युकी न हो बाधा| अपम्रुत्यू क्या कर सके||२३ ||
जिसे ना हो मृत्यु का डर| उसे यवन भी क्या कर सके||
श्रीगुरुकृपा हो जिसपर | यम का भय उसे ना रहे||२४ ||
इसी बीच वह यवन| भ्रांतिवश पहुँचा गृह के भीतर |
हो गया वोह निद्रा में मगन | न रहा तब शरीर स्मरण||२५ ||
दौड़ते हुए पहुँचा वोह बाहर | और कहा हे स्वामी , आपको किसने भेजा हैं||
उचित मानसम्मान दिए ब्राह्मण को | कहा गलतीसे आपको न्योता आया हैं||२९ ||
चारो वेद आपकी महिमा से अनभिज्ञ हैं||६ ||
आप से ही विश्व व्यापक | आप से ही ब्रम्हा विष्णु और महेश |
अवतार लेकर मनुष्य जन्म में | भक्तो के तारणहार आए हो||७ ||
आपकी अपार महिमा का वर्णन करने| वाचा की शक्ति सीमित हैं|
कृपा कर वर दे मुनीश्रेष्ट | सदा आपका स्मरण रहे||८ ||
कृपा कर वर दे मुनीश्रेष्ट | सदा आपका स्मरण रहे||८ ||
मेरा वंशवृक्ष सदा| आपके भक्तो से फूला हो||
जनमभर करे सदा भक्ति | अंत में मुक्ति प्राप्त हो||९ ||
जनमभर करे सदा भक्ति | अंत में मुक्ति प्राप्त हो||९ ||
ऐसी बिनती करके | सायंदेव आज्ञा मांगे श्री गुरु से|
कामकाज निमित्त्य यवन के| महल उन्हें बुलाया हैं ||१० ||
कामकाज निमित्त्य यवन के| महल उन्हें बुलाया हैं ||१० ||
महाक्रूर वोह यवन| हरसाल मारे एक ब्राह्मण|
इसी नियम की पूर्ती करने| शायद आज बुलावा आया हैं ||११ ||
इसी नियम की पूर्ती करने| शायद आज बुलावा आया हैं ||११ ||
मुझे बुलाने का हैं मतलब | मृत्यू नजदीक आयी हैं|
आपके दर्शन शुभ और मंगल | मृत्यु कैसे हो सकती हैं||१२ ||
आपके दर्शन शुभ और मंगल | मृत्यु कैसे हो सकती हैं||१२ ||
यह सुनकर गुरुवर | हसने लगे संतुष्ट होकर|
सायंदेव को दे अभयकर | कहा सब चिंताए अब छोडो ||१३ ||
सायंदेव को दे अभयकर | कहा सब चिंताए अब छोडो ||१३ ||
आगे बढो और मिलो यवन को| मन से निडर होकर||
वापस तुमको भेजेगा वोह| ख़ुद संतुष्ट होकर||१४ ||
जब तक तुम लौटोगे | हम यही राह देखेंगे||
तुम्हारी खुषहाली सुनकर| यहासे प्रस्थान करेंगे ||१५ ||
सबसे प्रिय हमारे भक्त| ऐसी ख्याती होगी तुम्हारी||
हर संतान तेरे वंश की| रत होगी भक्ती में हमारी||१६ ||
सदा खुष होगा तेरा घर| लक्ष्मी सदा वहा वास करे||
निरोगी बीतेगा सबका जीवन| सौ वर्षो की आयु मिले||१७ ||
ऐसा सद्गुरु से वर लेकर| निकले सायंदेव यवन की ओर |
वहा यवन इन्तेजार करे| कब मारूंगा ब्राह्मण को||१८ ||
वहा यवन इन्तेजार करे| कब मारूंगा ब्राह्मण को||१८ ||
क्रोधित यवन को देख के ब्राह्मण| स्मरण करे गुरु महाराज का|
तब यवन लग रहा था | अवतार भयानक आसुर का||१९ ||
अगर चिढे दीमक | तो क्या अग्नीसे खेलेगी |
और गुरुकृपा हो जिस पर| क्या उसको ऐसी सजा मिलेगी||२० ||
गरुड़ के पिल्लों को| क्या साप डसेगा ||
गुरुकृपांकित सायंदेव पर| यवन कैसे हात उठाएगा ||२१ ||
गुरुकृपांकित सायंदेव पर| यवन कैसे हात उठाएगा ||२१ ||
या किसी सिंह पर| ऐरावत कैसे चाल करे|
गुरुकृपा हो जिस शिष्यपर | काल कैसे आघात करे||२२ ||
जिस मन में हो गुरुस्मरण | डर वहा कैसे वास करे|
काल मृत्युकी न हो बाधा| अपम्रुत्यू क्या कर सके||२३ ||
जिसे ना हो मृत्यु का डर| उसे यवन भी क्या कर सके||
श्रीगुरुकृपा हो जिसपर | यम का भय उसे ना रहे||२४ ||
इसी बीच वह यवन| भ्रांतिवश पहुँचा गृह के भीतर |
हो गया वोह निद्रा में मगन | न रहा तब शरीर स्मरण||२५ ||
ह्रदय में भड़कने लगी ज्वालाये | चिल्लाने लगा भयभीतसा |
आतंकित वोह नींद से जागा | ध्यान नही था शरीर का ||२६ ||
आतंकित वोह नींद से जागा | ध्यान नही था शरीर का ||२६ ||
भ्रम में फस गया| तबियत हो गयी बेहोष सी |
मुझपे वार करे यह ब्राह्मण | ऐसी उसकी तक्रार थी||२७ ||
मुझपे वार करे यह ब्राह्मण | ऐसी उसकी तक्रार थी||२७ ||
न समझ रहा उसे कोई| उसकी जान पे बन आई थी||
मांगने लगा था प्राणों की भीख| ब्राह्मण नही उसके रूप मृत्यू नजर आ रही थी||२८ ||
मांगने लगा था प्राणों की भीख| ब्राह्मण नही उसके रूप मृत्यू नजर आ रही थी||२८ ||
दौड़ते हुए पहुँचा वोह बाहर | और कहा हे स्वामी , आपको किसने भेजा हैं||
उचित मानसम्मान दिए ब्राह्मण को | कहा गलतीसे आपको न्योता आया हैं||२९ ||
आनंदीत होकर द्विजवर | पहुँचा ग्राम के भीतर |
ढूँढने लगा वोह गुरुवर को| बैठे थे जो गंगातट पर||३० ||
ढूँढने लगा वोह गुरुवर को| बैठे थे जो गंगातट पर||३० ||
देखकर श्रीगुरुवर को| माथा टिकाया चरण कमलोपर |
अब तक बीती बातें सुनाकर | कहा आशीर्वचन दीजिये||३१||
महाराज ने आनंदीत होकर| कहा सदा खुष रहो||
निकलेंगे अब दक्षिणी यात्रापर | शिष्यों तयारियो को लगो ||३२||
निकलेंगे अब दक्षिणी यात्रापर | शिष्यों तयारियो को लगो ||३२||
यह सुनकर सायंदेव द्विजवर | उन्हें रोककर मनाने लगे |
बिना आपके दर्शन| कैसे जीवन व्यतीत करे||३३ ||
बिना आपके दर्शन| कैसे जीवन व्यतीत करे||३३ ||
आपके बिना गुरूवर| प्रेम नही हैं इस जीवनपर ||
कृपासिंधु या हमें भी ले चलिये| आपके संग तीर्थ यात्रापर||३४||
सगरो के उद्धार हेतू | भगीरथ रूप में गंगा लाई |
उसी तरह दर्शन पुण्य दे | आपने मेरी जान बचाई ||३५||
कृपासिंधु या हमें भी ले चलिये| आपके संग तीर्थ यात्रापर||३४||
सगरो के उद्धार हेतू | भगीरथ रूप में गंगा लाई |
उसी तरह दर्शन पुण्य दे | आपने मेरी जान बचाई ||३५||
भक्तवत्सल ऐसी ख्याति | त्रिजगत में आपकी हैं||
हमें भवसागर मध्य में छोडना | ये कौनसी नीति हैं||३६||
यह सब सुनकर गुरुवर| सायंदेव पर खुष हुये||
कहने लगे अब रुकना मुश्कील | भविष्य में तुझे दर्शन मिले||३७ ||
कहने लगे अब रुकना मुश्कील | भविष्य में तुझे दर्शन मिले||३७ ||
पंधराह साल बाद मिलेंगे| गाठ ध्यान में बाँध लो||
तुम्हारे गाव के नजदीक होंगे| तब तुमसे मुलाकात हो||३८ ||
तुम्हारे गाव के नजदीक होंगे| तब तुमसे मुलाकात हो||३८ ||
सदा खुष रहो सायंदेव| चिंताए न तुम्हे सतायेंगी |
संतुष्ट रहे सारा परिवार | दुख की परछाई न छुएगी ||३९ ||
संतुष्ट रहे सारा परिवार | दुख की परछाई न छुएगी ||३९ ||
अपने भक्त पर प्रसन्न होकर| श्रीगुरु महाराज प्रस्थान करे|
आरोग्यभवानी का दर्शन लेकर| वो वैजनाथ क्षेत्र आकर रुके ||४० ||
आरोग्यभवानी का दर्शन लेकर| वो वैजनाथ क्षेत्र आकर रुके ||४० ||
सब शिष्यों समवेत गुरूवर| देखते हुए तीर्थो को||
वैजनाथ क्षेत्र पुण्यप्रतापी | में धारण किया गुप्तरूप को||४१ ||
वैजनाथ क्षेत्र पुण्यप्रतापी | में धारण किया गुप्तरूप को||४१ ||
नामधारी कहे सिद्धामुनी से | क्या था कारण गुप्त होने का|
और संग थे जो शिष्य उनके| क्या था हाल उनका आगे का||४२ ||
और संग थे जो शिष्य उनके| क्या था हाल उनका आगे का||४२ ||
गंगाधर जो सरस्वतीपुत्र | बढाते हैं आगे गुरूचरित्र ||
सिद्धामुनी जिसका करके विस्तार | करे नामधारी को भवसागर पार||४३ ||
आगे का चरित्र सुनो श्रोताओ | जिसमे महाराज की लीलाये हैं||
मनको जब रखो एकाग्र || लुभाती सब कथाये हैं||४४ ||
इतिश्री गुरुचरित्र परमकथा कल्पतरौ श्री न्रुसिंहसरस्वतुप्ख्याने सिद्ध नामधारक संवादे क्रूरयवन शासनं - सायंदेव वर प्रदानं नामः चतुर्दशोध्ययाः ||
(इस तरह गुरुचरित्र परमपुण्यपावन कथा का यह चौदहवा अध्याय, जो सिद्धामुनी और नामधारी का संवाद रूप हैं
एवं जिसमे सायंदेव को वर मिला और यवन को शासन अब संपन्न होता हैं ||)
|| श्री गुरुदेव दत्तात्रेयार्पणमस्तु ||
||अवधूतचिंतन श्री गुरुदेव दत्त||
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