Wednesday, August 20, 2008

गुरुचरित्र १४वा अध्याय - हिन्दी में


गुरुचरित्र  १४वा  अध्याय - हिन्दी में
 
श्री  गणेशाय नमः | श्री सरस्वत्यै  नमः| श्री गुरुभ्यो  नमः | 
 
नामधारी  शिष्य आए| सिद्धमुनी को देख मुस्कुराये |
पूछा  एकाग्र  चित्तसे  |  गुरुचरित्र  अब आगे बढाए || १||
 
जय  हो सिद्ध योगीश्वर  | कृपामूर्ति  ज्ञान  के सागर|
गुरुचरित्र कथा का विस्तार  कर| ज्ञान हमारा बढाये||२ ||
 
गुरुकृपा  जिस पर हुई | उस ब्राह्मण की उदरव्यथा  गई|
जिसके साथ थे सायंदेव | उसके घर भिक्षा  हेतू  पहुंचे||३ ||
 
सायंदेव का था थाट  निराला | भक्ती  से उसकी खुष होकर|
बोले श्री गुरुमुनिवर  | वंश  तेरा  कायम रहे, सदा मेरे भक्तों  से||४ ||
 
सुनकर गुरु  की अमृतवाणी  | सायंदेव गुरु के पैर  धरे|
माथा टिकाकर  गुरु चरणों पर| नमन  वह करे पुनः पुनः ||५ ||
 
जय हो जगद्गुरु | त्रिमूर्ति  के अवतार हो|| मेरे अविद्या  हैं की नर- रूप दिखते  हैं|
चारो  वेद  आपकी  महिमा  से अनभिज्ञ  हैं||६ ||
 
आप से ही विश्व व्यापक | आप से ही ब्रम्हा विष्णु और महेश |
अवतार लेकर मनुष्य जन्म  में | भक्तो के तारणहार आए हो||७ ||
 
आपकी अपार महिमा का वर्णन  करने| वाचा  की शक्ति सीमित  हैं|
कृपा कर वर  दे मुनीश्रेष्ट  | सदा आपका स्मरण रहे||८ ||
 
मेरा वंशवृक्ष सदा| आपके भक्तो से फूला हो||
जनमभर  करे सदा भक्ति | अंत  में मुक्ति  प्राप्त  हो||९ ||
 
ऐसी बिनती करके | सायंदेव आज्ञा  मांगे   श्री गुरु से|
कामकाज निमित्त्य  यवन  के| महल  उन्हें  बुलाया हैं ||१० ||
 
महाक्रूर  वोह  यवन| हरसाल  मारे एक ब्राह्मण|
इसी नियम  की पूर्ती करने| शायद आज बुलावा  आया  हैं ||११ ||
 
मुझे बुलाने का हैं मतलब | मृत्यू नजदीक आयी हैं|
आपके दर्शन शुभ  और मंगल  | मृत्यु कैसे हो सकती हैं||१२ ||
 
यह सुनकर गुरुवर | हसने  लगे संतुष्ट  होकर|
सायंदेव को दे अभयकर  | कहा सब चिंताए  अब छोडो ||१३ ||

आगे बढो और मिलो  यवन को| मन से निडर  होकर||
वापस तुमको भेजेगा  वोह| ख़ुद संतुष्ट होकर||१४ ||
 
जब तक तुम लौटोगे | हम यही राह देखेंगे||
तुम्हारी खुषहाली  सुनकर| यहासे  प्रस्थान  करेंगे ||१५ ||
 

सबसे प्रिय हमारे भक्त| ऐसी ख्याती   होगी तुम्हारी||
हर संतान तेरे वंश की| रत होगी भक्ती में हमारी||१६ ||
 

सदा खुष होगा तेरा घर| लक्ष्मी  सदा वहा  वास करे||
निरोगी  बीतेगा  सबका जीवन| सौ वर्षो की आयु  मिले||१७ ||
 
ऐसा सद्गुरु  से वर लेकर| निकले  सायंदेव  यवन की ओर |
वहा यवन इन्तेजार  करे| कब मारूंगा  ब्राह्मण को||१८ ||

क्रोधित   यवन को देख के ब्राह्मण| स्मरण करे गुरु महाराज  का|
तब  यवन लग रहा था | अवतार भयानक  आसुर  का||१९ ||
 

अगर चिढे  दीमक | तो  क्या अग्नीसे  खेलेगी |
और गुरुकृपा  हो जिस पर| क्या उसको ऐसी सजा  मिलेगी||२० ||
 
गरुड़  के पिल्लों को| क्या साप  डसेगा ||
गुरुकृपांकित  सायंदेव पर| यवन कैसे हात  उठाएगा ||२१ ||

या किसी सिंह  पर| ऐरावत  कैसे चाल करे|
गुरुकृपा हो जिस शिष्यपर | काल कैसे आघात  करे||२२ ||

जिस मन  में हो गुरुस्मरण | डर वहा कैसे वास करे|
काल मृत्युकी  न हो बाधा| अपम्रुत्यू  क्या कर सके||२३ ||

जिसे ना हो मृत्यु का डर| उसे यवन भी क्या कर सके||
श्रीगुरुकृपा  हो जिसपर | यम  का भय उसे ना रहे||२४ ||

इसी बीच वह यवन| भ्रांतिवश  पहुँचा   गृह के भीतर |
हो गया वोह निद्रा  में मगन | न रहा तब शरीर  स्मरण||२५ ||
 
ह्रदय  में भड़कने  लगी ज्वालाये | चिल्लाने  लगा भयभीतसा |
आतंकित  वोह  नींद से जागा | ध्यान  नही था शरीर  का ||२६ ||
 
भ्रम में फस  गया| तबियत हो गयी बेहोष  सी |
मुझपे  वार  करे यह ब्राह्मण | ऐसी उसकी तक्रार  थी||२७ ||
 
न समझ रहा उसे कोई| उसकी जान पे बन आई  थी||
मांगने  लगा था प्राणों  की भीख| ब्राह्मण नही उसके रूप मृत्यू नजर आ रही थी||२८ ||

दौड़ते  हुए पहुँचा वोह बाहर | और कहा हे स्वामी , आपको किसने भेजा  हैं||
उचित मानसम्मान  दिए ब्राह्मण को | कहा गलतीसे  आपको न्योता  आया हैं||२९ ||
 
आनंदीत  होकर द्विजवर  | पहुँचा ग्राम  के भीतर |
ढूँढने  लगा वोह गुरुवर  को| बैठे थे जो गंगातट पर||३० ||

देखकर  श्रीगुरुवर  को| माथा टिकाया  चरण कमलोपर |
अब तक बीती  बातें सुनाकर | कहा आशीर्वचन  दीजिये||३१||
 
महाराज  ने आनंदीत  होकर| कहा सदा खुष रहो||
निकलेंगे  अब दक्षिणी यात्रापर |  शिष्यों तयारियो को लगो ||३२||
 
यह सुनकर सायंदेव द्विजवर | उन्हें  रोककर मनाने  लगे |
बिना  आपके दर्शन| कैसे जीवन व्यतीत  करे||३३ ||
 
आपके बिना गुरूवर| प्रेम नही हैं इस जीवनपर ||
कृपासिंधु  या हमें  भी ले चलिये| आपके  संग  तीर्थ यात्रापर||३४||
 
सगरो  के उद्धार  हेतू | भगीरथ रूप में  गंगा  लाई |
उसी तरह  दर्शन पुण्य दे | आपने मेरी जान बचाई ||३५||

भक्तवत्सल   ऐसी ख्याति | त्रिजगत  में आपकी हैं||
हमें भवसागर  मध्य में छोडना | ये  कौनसी  नीति  हैं||३६||
 
यह सब सुनकर गुरुवर| सायंदेव पर खुष हुये||
कहने लगे अब रुकना  मुश्कील | भविष्य में तुझे  दर्शन मिले||३७ ||
 
पंधराह  साल बाद मिलेंगे| गाठ ध्यान  में बाँध लो||
तुम्हारे गाव  के नजदीक होंगे| तब  तुमसे मुलाकात   हो||३८ ||
 
सदा खुष रहो सायंदेव| चिंताए  न तुम्हे सतायेंगी |
संतुष्ट  रहे सारा  परिवार | दुख की परछाई  न छुएगी ||३९ ||
 
अपने भक्त पर प्रसन्न  होकर| श्रीगुरु   महाराज प्रस्थान  करे|
आरोग्यभवानी का दर्शन लेकर| वो  वैजनाथ  क्षेत्र आकर  रुके ||४० ||
 
सब शिष्यों समवेत  गुरूवर| देखते हुए तीर्थो  को||
वैजनाथ क्षेत्र पुण्यप्रतापी |  में धारण  किया गुप्तरूप  को||४१ ||
 
नामधारी  कहे सिद्धामुनी  से | क्या था कारण  गुप्त  होने का|
और संग थे जो शिष्य उनके| क्या था हाल उनका आगे का||४२ ||
 

गंगाधर  जो सरस्वतीपुत्र | बढाते  हैं आगे गुरूचरित्र ||
सिद्धामुनी जिसका करके विस्तार | करे नामधारी को भवसागर पार||४३ ||
 
आगे का चरित्र सुनो श्रोताओ | जिसमे महाराज की लीलाये  हैं||
मनको  जब रखो  एकाग्र || लुभाती  सब कथाये  हैं||४४ ||
 

इतिश्री  गुरुचरित्र परमकथा  कल्पतरौ  श्री  न्रुसिंहसरस्वतुप्ख्याने   सिद्ध नामधारक  संवादे  क्रूरयवन  शासनं  - सायंदेव वर प्रदानं  नामः  चतुर्दशोध्ययाः ||
 
(इस तरह गुरुचरित्र परमपुण्यपावन कथा का यह चौदहवा अध्याय, जो सिद्धामुनी और नामधारी का संवाद रूप हैं 
एवं जिसमे सायंदेव को वर मिला और यवन को शासन अब संपन्न होता हैं ||)
 
|| श्री  गुरुदेव  दत्तात्रेयार्पणमस्तु ||
 
||अवधूतचिंतन  श्री गुरुदेव दत्त||

 

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